Jharkharnd: जिस समाज की कल्पना हम स्त्रियों के बल मातृशक्ति पर रखते है। उसी समाज में पनपा पुरुष प्रधान मानसिकता से प्रभावित भारतीय समाज, महिलाओं के साथ अन्याय, अत्याचार और शोषण का इतिहास हजारों साल से सुना रहा है। साथ ही साथ इतिहास इस बात की भी गावही देता है कि समय-समय पर भारतीय समाज में महिलाओं के बीच से ही निकलकर कई वीरांगनाओं ने भी भारत का नेतृत्व किया है और बदलाव की वाहक बनी। कसमार प्रखंड की सिंहपुर पंचायत अंतर्गत करमा (भंडारडीह) गांव की सरस्वती सिंह के रूप में बोकारो को भी एक ऐसा ही नेतृत्व मिला। महज 14 साल की उम्र में महिला हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने वाली यह महिला आज 76 साल की उम्र में भी महिलाओं के मान-सम्मान, हक-इंसाफ एवं कुप्रथा- कुरीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है।
60 सालों महिला हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ रही…
पिछले 60 सालों से वह महिला हिंसा के खिलाफ आवाज की प्रतीक बनी हुई है। छह दशक तक लगातार महिलाओं के हक-सम्मान व न्याय के लिए संघर्ष करना कोई आसान काम नही। साधारण सी दिखने वाली असाधारण सरस्वती सिंह जैसी जिद्दी और जुनूनी महिलाएं ही असंभव को संभव करती है। यही कारण है कि वह इस क्षेत्र की ‘आयरन लेडी’ के रूप में भी जानी जाती है।
1961 में पहली बार महिला हिंसा के खिलाफ आवाज भरी…
सरस्वती ने पहली बार वर्ष 1961 में महिला हिंसा के खिलाफ आवाज तब बुलंद की थी, जब इनकी मौसेरी बहन पर पति द्वारा जुल्म ढाये जा रहे थे। बहन के साथ हो रहे इस अत्याचार को देख रहा नहीं गया और उस छोटी-सी उम्र में ही इसके खिलाफ उठ खड़ी हुई। प्रारंभ में बच्ची समझकर जीजा ने इन्हें हल्के में लिया और थप्पड़ जड़कर आवाज दबाने की कोशिश की। वह माननेवाली कहां थी, उन्होंने हर हाल में बहन को न्याय दिलाने की ठान ली। तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह छोटी-सी लड़की अपनी बहन को न्याय दिलाने की लड़ाई जीतते हुए एक बड़ी जंग के रास्ते पर चलेगी। इनके तेवर के सामने आखिरकार जा को झुकना पड़ा। समाज के गण्यमान्य लोगों की उपस्थिति में बांड भराने के बाद बहन ने अपने पति के साथ नयी जिंदगी शुरू की। इस क्षेत्र में महिला हिंसा की यह कोई पहली या आखिरी घटना नहीं थी। आसपास में आये दिन हो रही महिला उत्पीड़न की घटनाएं सरस्वती जी को उद्वेलित करती रही। फिर तो महिलाओं के लिए लड़ाई लड़ना ही इनके जीवन का ध्येय बन गया।
क्षेत्र में महिला किसान क्लब गठित कराया…
इस क्षेत्र में महिला किसान क्लब गठित कराने में भी इनकी अहम भूमिका रही है। इनके ही प्रयास से खिजरा गांव में ढेड़ दशक पहले क्षेत्र का पहला महिला किसान क्लब बना था। उसके बाद ही अन्य जगहों पर भी महिला किसान क्लब का गठन कराया। इसके अलावा गांवों में एसएचजी गठित कर महिलाओं को स्वावलंबी बन जीना सिखाया है। करीब 1400 स्वयं सहायता समूहों का नेतृत्व इन्होंने किया। इनमें 750 समूह इन्होंने बनवाया है। 22 जनवरी से 31 मार्च, 1995 तक नेशनल यूथ प्रोजेक्ट की सद्भावना रेल यात्रा में भी शामिल हुईं। झारखंड के विभिन्न जिलों व गांवों-शहरों के अलावा कोलकाता, मुंबई, गोवा, ओड़िशा, दिल्ली, बनारस, मथुरा, विशाखापट्टनम्, अहमदाबाद, हिमाचल, अजमेर, उदयपुर (राजस्थान) आदि जगहों पर भी महिलाओं के लिए आवाज बुलंद कर चुकी है।
साइकिल से की सफर की शुरुआत….
उम्र की इस ढलान पर भी पतली दुबली काया वाली सरस्वती सुबह ही साइकिल लेकर निकल पड़ती है। आर्थित तंगी के बावजूद गांवों में घूम-घूम कर महिलाओं के मान-सम्मान और हक-इंसाफ की लड़ाई लड़ना इनकी दिनचर्या है। इन्होंने साइकिल से सफर की शुरुआत 1957 में ही कर दी थी। तब इस क्षेत्र की लड़कियां साइकिल नहीं चलाती थी या कहें घर-परिवार से चलाने की इजाजत नहीं थी। इन्हें साइकिल चलाता देख लोग अचरज में पड़ जाते थे। प्रोत्साहित करने की बजाय कुछ लोग चिढ़ाते व मजाक तक उड़ाते थे।
सांघा प्रथा को किया खत्म….
इन क्षेत्रों में सांघा प्रथा को खत्म करने-कराने में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। इस प्रथा के तहत पुरुष एक से अधिक विवाह करने के लिए स्वतंत्र थे। पहली पत्नी का परित्याग भी कर सकते थे। इससे कई महिलाओं का जीवन बर्बाद हो रहा था। सरस्वती ने आइना संस्था के बैनर तले नुक्कड़ नाटक व अन्य माध्यमों से इस प्रथा के खिलाफ व्यापक अभियान चलाया। कई सालों के संघर्ष के बाद इस प्रथा को खत्म कराने में सफल रही।