उप राजधानी दुमका में हाईकोर्ट के खंडपीठ गठन को मुख्यमंत्री ने दी मंजूरी..

दुमका जिले में झारखंड हाइकोर्ट के खंडपीठ गठन से संबंधित प्रस्ताव को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने स्वीकृति दे दी है। इसके लिए भूमि चिन्हित करने की कवायद भी तेज़ कर दी गई है। आपको बता दें कि, वर्तमान में रांची स्थित झारखंड उच्च न्यायालय के प्रधान पीठ के आलावा राज्य के किसी भी जिले में कोई खंडपीठ कार्यरत नहीं है। इसे लेकर मुख्य सचिव ने पहले ही भवन निर्माण विभाग को भूमि चिन्हित करने का निर्देश दिया था।

गौरतलब है कि, लंबे समय से दुमका में हाई कोर्ट की खंडपीठ बनाने की मांग की जा रही थी। उस दौरान विधि विभाग के जरिए बेंच के क्षेत्राधिकार निर्धारण को लेकर सुप्रीम कोर्ट व केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय को पत्र भेजा गया था। दुमका से बार काउंसिल भी लगातार हाई कोर्ट केइस सर्किट बेंच यानी कि खंडपीठ की मांग कर रहा था। दरअसल, संथाल परगना के लोगों को लंबी दूरी तय कर रांची आकर मुकदमों की पैरवी करने में परेशानी होती है। कहीं ना कहीं अधिवक्ताओं की भी यही परेशानी थी।

हाईकोर्ट की दुमका बेंच के गठन को लेकर सरकार ने पहले ही वादा किया था। लेकिन लंबे समय तक केंद्र सरकार को प्रस्ताव नहीं भेजा गया था। झारखंड विधानसभा से इसके लिए दो बार प्रस्ताव पास हो चुका है। कैबिनेट ने भी इसकी मंजूरी दी लेकिन अब तक इसकी प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। संथाल परगना के लोगों की परेशानी को देखते हुए झारखंड बार काउंसिल ने भी राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पत्र लिखकर मांग की थी।

केंद्र को भेजा जाएगा प्रस्ताव
मुख्यमंत्री की मंजरुई के बाद अब दुमका में हाईकोर्ट के बेंच गठन के लिए केंद्र सरकार के पास प्रस्ताव भेजना होगा। जिसके बाद केंद्र सरकार संसद में कानून बनाकर इसे पास कराएगी। ज्ञात हो कि वर्षों पहले पटना हाइकोर्ट के रांची में स्थायी बेंच के लिए संसद ने पटना स्टेब्लिसमेंट ऑफ परमानेंट बेंच एट रांची ( एक्ट) पास किया था। इसके बाद 1976 में रांची स्थायी बेंच का गठन किया गया।

संथाल परगना के 40 हजार से अधिक मामले लंबित
बात करें मौजूदा स्थिति की तो झारखंड हाईकोर्ट में संथाल परगना इलाके से संबंधित 40 हजार से अधिक मामले लंबित हैं। इनमें से करीब डेढ़ हजार ऐसे मामले हैं जिन पर एक बार भी सुनवाई नहीं हुई है। बार काउंसिल के सदस्यों के अनुसार मामलों की सुनवाई के लिए कई बार लोग रांची जाते हैं। कभी-कभी मामला सूचीबद्ध रहता है, लेकिन सुनवाई नहीं होती। ऐसे में उन्हें वापस लौटना पड़ता है। इससे समय पैसे का बड़े पैमाने पर नुकसान होता है।

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