झारखंड में भाजपाई सियासत की हिलने लगी दीवार, झेलनी पड़ रही आदिवासियों की नाराजगी..

इसी साल नवंबर में विधानसभा चुनाव होना है, इसकी तैयारी भी शुरू हो गई है. इस बार इंडिया ब्लाक लोकसभा चुनाव से भी बेहतर परिणाम की उम्मीद विधानसभा चुनाव में कर रहा है और झारखंड में जेएमएम नेतृत्व वाली राज्य सरकार के कामकाज में तेजी देख कर इस बात का साफ साफ अंदाजा लगता है. वैसे अभी तक झारखंड में लोकसभा चुनाव की चर्चा थी. पर, अब सभी दलों का ध्यान केवल विधानसभा चुनाव पर ही केंद्रित है. हालांकि, लोकसभा चुनाव के परिणाम भाजपा के उम्मीदानुकूल नहीं था. फिर भी भाजपा अब तक केंद्र में सरकार बन जाने की खुशी से बाहर नहीं आ सकी है. लगातार दो चुनावों से राज्य की कुल 14 में 12 सीटों पर जीतती रही भाजपा और उसके सहयोगी दलों को इस बार नौ सीटों पर अपना मन रखना पड़ा है. जहां झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) एक-एक पर सिमट कर रह गए वहीं कांग्रेस इस बार पांच सीटों पर अपना नाम लिखने में सफल रही.

नहीं मिला आदिवासी समाज का सहयोग
इस बार लोकसभा चुनाव की खास बात यह रही है कि अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित सीटों में एक भी भाजपा को नहीं मिली. 2019 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी समाज का कुछ ऐसा ही मूड था. तब भाजपा के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ रहे सभी ट्राइबल उम्मीदवार हार गए थे. इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए सबसे हास्यास्पद स्थिति यह भी रही कि आदिवासी समाज से ही आने वाले झारखंड के दो बार सीएम रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा को जीत हासिल नहीं हो सकी. हालांकि इसका ट्रेलर 2019 में तो दिखा ही था. वो खूंटी लोकसभा सीट से बस डेढ़ हजार से कम वोटों के अंतर से जीते थे. इससे भाजपा जरूर समझ रही होगी कि लाख कोशिशों के बावजूद झारखंड का आदिवासी समाज उससे क्यों नाराज है. हालांकि साल 2014 में ऐसी स्थिति नहीं थी. तब न केवल लोकसभा चुनाव बल्कि विधानसभा चुनाव में भी आदिवासी मतदाताओं ने भाजपा को वोट किया था और रघुवर दास के नेतृत्व में सरकार बनाई गई थी.

आखिर क्या है आदिवासियों के नाराजगी की वजह
झारखंड में आदिवासी समाज काफी समय से खतियान आधारित स्थानीय नीति और नियोजन नीति की मांग कर रही है. 2019 में सीएम बनने के बाद जेएमएम नेता हेमंत सोरेन ने पहले तो ऐसी नीतियों को बनाने से इनकार कर दिया था, लेकिन बाद में विधानसभा से दोनों नीतियों के बिल पास करा दिए और राज्यपाल के पास भेज दिया गया था. राज्यपाल ने संवैधानिक खोट बता कर दोनों ही नीतियों को वापस कर दिया. अब जेएमएम को यह कहने का मौका मिल गया कि उन्होंने तो अपना काम कर ही दिया था पर, भाजपा के इशारे पर राज्यपाल ने ही कार्य में अड़ंगा डाल दिया. सच्चे और शुद्ध हृदय वाले आदिवासी समाज ने हेमंत की बातों पर यकीन कर लिया. इसी बीच अचानक बहुत कुछ बदल गया जब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने झारखंड के भ्रष्टाचार की परतें उधेड़ने शुरू कीं. सीएम पद पर कार्यरत रहते हेमंत सोरेन पर पद का दुरुपयोग कर खनन पट्टा लेने का गंभीर आरोप लग गया. फिर जमीन घोटाले में उनका नाम आते ही उनकी गिरफ्तारी हो गई. इसे जेएमएम ने आदिवासी मुख्यमंत्री होने का खामियाजा बता कर प्रचारित किया. हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन ने भी भावनात्मक ढंग से इसमें मिर्च मसाला मार कर छौंक लगाना शुरू कर दिया था और अब नतीजा सबके सामने है जब लोकसभा में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को लोकसभा की तीन सीटें गंवानी पड़ गईं. अब भाजपा को नई रणनीति पर गौर फरमाना की जरूरत है. इधर हेमंत सोरेन को जेल भेजे जाने की घटना को जेएमएम ने आदिवासी विरोधी कदम बता कर आदिवासी समाज को भड़का दिया है. अब कोई चमत्कार ही आदिवासी समाज को भाजपा की तरफ कर सकती है वरना इस बार विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को भारी नुकसान का सामना करना पड़ सकता है.

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