‘हुल दिवस’ पर विशेष: आज भी बनी हुई है ‘संथाल हुल’ की प्रासंगिकता..

30 जून 1855 को, भोगनाडीह में वीर सिदो-कान्हू के नेतृत्व में हजारों आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया था। इस दिन को हूल क्रांति दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस विद्रोह में करीब 20,000 आदिवासियों ने अपनी जान गंवाई थी. आज, हम स्वतंत्र भारत में रहते हैं, और अब समय आ गया है कि देश को हर क्षेत्र में उन्नति और प्रगति के मार्ग पर ले जाया जाए, जिससे भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाया जा सके. हूल क्रांति की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है, इसके मूल उद्देश्यों और आदर्शों की आवश्यकता आज भी महसूस की जाती है. आज, हमें हर क्षेत्र में प्रगति के लिए हूल क्रांति जैसी नई ऊर्जा और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है. आदिवासी समाज के कई युवा अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन और मेहनत के बल पर सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक क्षेत्रों में नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं. वे हूल क्रांति के आदर्शों को जीवित रखते हुए समाज और देश का नाम रोशन कर रहे हैं. उनकी प्रतिबद्धता और संघर्ष न केवल आदिवासी समाज बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणादायक है.

आनंद बेसरा, शिक्षा और आदिवासी स्वशासन व्यवस्था के प्रति जागरूकता
पोटका के डोमजुड़ी पंचायत के राजदोहा-धोबनी निवासी आनंद बेसरा न केवल खुद आगे बढ़ रहे हैं बल्कि समाज के अन्य युवाओं को भी आगे बढ़ने का मार्ग दिखा रहे हैं. वे अपने गांव धोबनी में बिरसा मुंडा कंपीटिशन अकादमी की स्थापना कर युवाओं को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करा रहे हैं. साथ ही, वे सावित्री बाई फूले सह वीर फूलो-झानो गांवला पुस्तकालय के माध्यम से छात्रों को शिक्षा में सहयोग प्रदान कर रहे हैं. आनंद बेसरा अजीम प्रेमजी फाउंडेशन फैलोशिप प्रोग्राम के तहत आदिवासी बहुल क्षेत्र में संविधान के संवैधानिक मूल्यों के प्रति जागरूकता फैला रहे हैं. वर्तमान में आनंद पॉलिटिकल साइंस से एमए की पढ़ाई कर रहे हैं। उनके ये क्रांतिकारी कदम समाज को नई दिशा प्रदान कर रहे हैं.

बबली मुर्मू, संताली साहित्य की मशाल
कीताडीह जाहेरटोला निवासी बबली मुर्मू अपनी मातृभाषा संताली भाषा और साहित्य की सेवा में समर्पित हैं. उनके नेतृत्व में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय जमशेदपुर और बालिका आवासीय विद्यालय में “ओल इतुन आसड़ा” चलाया जा रहा है. बबली मुर्मू छात्राओं को संताली भाषा की ओलचिकी लिपि में लिखना और पढ़ना सिखाती हैं. बबली मुर्मू का यह प्रयास सराहनीय है क्योंकि वे अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संजोने और अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं. उनके इस अभियान से छात्राओं को न केवल अपनी मातृभाषा में निपुणता हासिल हो रही है, बल्कि उन्हें अपनी जड़ों से जुड़ने का अवसर भी मिल रहा है. बबली मुर्मू का योगदान संताली भाषा और संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है.

बबलू मुर्मू, पर्यावरण और संवैधानिक अधिकारों की जागरूकता
चड़कपत्थर चारडीहा निवासी बबलू मुर्मू आदिवासी स्वशासन व्यवस्था के कुशल संचालन में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं. माझी परगना महाल सीञ दिशोम दुगनी पीड़ पारानिक के रूप में कार्यरत बबलू मुर्मू सरायकेला-खरसावां जिले के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय हैं. स्वशासन व्यवस्था की अहमियत बताने के साथ-साथ वे लोगों को पौधारोपण के लिए प्रेरित करते हैं और वन पर्यावरण की महत्ता से ग्रामीणों को अवगत कराते हैं. वे गांव-गांव में जाकर पौधारोपण कार्यक्रम का आयोजन करते हैं. बबलू मुर्मू ग्रामीणों को संविधान में निहित हक और अधिकारों के प्रति जागरूक करते हैं ताकि समाज के लोग अपने अधिकारों के प्रति सजग हो सकें. उनका यह समर्पण और प्रयास आदिवासी समाज को सशक्त और स्वावलंबी बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है.

सुदाम हेंब्रम, गरीब बच्चों की शिक्षा में योगदान
गुड़ाबांधा प्रखंड के सिंहपुरा गांव के निवासी सुदाम हेंब्रम समाज की शैक्षणिक स्थिति को सुधारने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं. वे वर्ष 2014 से अपने गांव में गरीब बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान कर रहे हैं. अब तक उन्होंने 500 से अधिक बच्चों को शिक्षित किया है, जिनमें से कई छात्र वर्तमान में कॉलेज में पढ़ाई कर रहे हैं और कुछ व्यवसाय में जुटे हुए हैं. सुदाम हेंब्रम वर्तमान में दो शैक्षणिक केंद्रों का संचालन कर रहे हैं, जहां वे स्वयं जाकर बच्चों को पढ़ाते हैं. इन केंद्रों में कुल 60 बच्चे नि:शुल्क शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. उनका यह प्रयास समाज के गरीब और वंचित बच्चों के लिए एक महत्वपूर्ण सहारा है, जो उन्हें एक बेहतर भविष्य की दिशा में अग्रसर कर रहा है. सुदाम हेंब्रम का समर्पण और शिक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता समाज के लिए प्रेरणादायक है.

प्रो. संजीव मुर्मू, समाज को जागरूक करने की पहल
प्रो. संजीव मुर्मू करनडीह स्थित एलबीएसएम कॉलेज में सहायक शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं, जहां वे संताली विषय पढ़ाते हैं. वे न केवल शिक्षा में उत्कृष्टता प्राप्त कर रहे हैं, बल्कि छात्रों में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक जागरूकता जगाने में भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं. इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने एक सामाजिक संगठन की स्थापना की है. इस संगठन के बैनर तले, प्रो. मुर्मू पौधारोपण, कार्यशालाओं, सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं. उनके संगठन में एक हजार से भी अधिक युवा छात्र जुड़े हुए हैं, जो समाज की भलाई के लिए काम कर रहे हैं. संजीव मुर्मू कोल्हान यूनिवर्सिटी, चाईबासा में संताली विभाग में भी शिक्षक रह चुके हैं. उनके प्रयासों से न केवल छात्रों को संताली भाषा और संस्कृति के प्रति जागरूकता मिल रही है, बल्कि वे समाज के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं.

इंद्र हेंब्रम: वंचितों की आवाज
परसुडीह हलुदबनी-डुंगरीटोला निवासी इंद्र हेंब्रम एक समर्पित सोशल एक्टिविस्ट हैं. वे बाबा साहेब भीमराव आंबेदकर, धरती आबा बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू, बाबा तिलका माझी, पोटो हो समेत जनजातीय समाज के महापुरुषों की जीवनी से प्रेरित होकर उन्हें अपना आदर्श मानते हैं और उनके दिखाए मार्ग पर चलते हैं. इंद्र हेंब्रम गरीबों और वंचितों के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार के खिलाफ हमेशा मुखर रहते हैं. वे जल, जंगल और जमीन की सुरक्षा के लिए निरंतर प्रयासरत हैं और “आबुआ दिशोम रे आबुआ राज” के तहत स्वशासन व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हैं. इसके अलावा, इंद्र हेंब्रम लोगों को संविधान में निहित अधिकारों के प्रति जागरूक करते हैं ताकि वे अपने हक की रक्षा स्वयं कर सकें. उनका समर्पण और प्रयास समाज के वंचित वर्ग के लिए एक महत्वपूर्ण सहारा है. इंद्र हेंब्रम का संघर्ष और समर्पण समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए प्रेरणादायक है.

सुंदरमोहन मुर्मू, संताली भाषा और संस्कृति का संरक्षण
नरवा क्षेत्र के डोमजुड़ी निवासी सुंदरमोहन मुर्मू एक प्रतिष्ठित पॉलिटिकल कॉर्टूनिस्ट हैं. उन्होंने अपनी कला की शिक्षा दिल्ली के मीडिया हेलिकल्स से प्राप्त की है. वे पिछले 18 सालों से कॉमिक्स ट्रेनर के रूप में भी कार्यरत हैं, जिससे कई युवा कलाकारों को प्रेरणा मिली है. सुंदरमोहन मुर्मू का अपनी मातृभाषा संताली से गहरा लगाव है. वे संताली भाषा साहित्य और ओलचिकी लिपि के विशेषज्ञ हैं. अपनी इस ज्ञान और प्रेम को साझा करने के लिए वे संताली शिक्षक की भूमिका भी निभाते हैं. वर्तमान में वे डोमजुड़ी और बाबनीडीह के दो शिक्षण केंद्रों में जाकर छात्रों को संताली पढ़ाते हैं. उनकी इस पहल से न केवल भाषा और संस्कृति का संरक्षण हो रहा है, बल्कि नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जुड़ने का अवसर भी मिल रहा है. सुंदरमोहन मुर्मू का यह प्रयास समाज में शिक्षा और सांस्कृतिक जागरूकता फैलाने का एक महत्वपूर्ण कदम है.

 

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