झारखंड: झारखंड की राजनीति इन दिनों सरना धर्म कोड, पेसा कानून और जातीय जनगणना जैसे संवेदनशील मुद्दों के इर्द-गिर्द घूम रही है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कांग्रेस जहां सरना धर्म कोड को लेकर सड़क से सदन तक आक्रामक मुद्रा में हैं, वहीं भाजपा ने पेसा कानून के सहारे सत्ताधारी गठबंधन पर निशाना साध लिया है। हालांकि इन मुद्दों पर तीनों ही प्रमुख दलों का अतीत संदेहों से भरा रहा है, जिससे आदिवासी समाज के वास्तविक हित सवालों के घेरे में आ गए हैं।
सरना धर्म कोडः राजनीति की नई ज़मीन
सरना धर्म कोड की मांग आदिवासी समाज की धार्मिक पहचान को मान्यता देने की पुरानी मांग रही है, लेकिन अब यह झारखंड की राजनीति में तूफान बन चुकी है। झामुमो और कांग्रेस ने इसे प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बना लिया है और लगातार धरना-प्रदर्शन से सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा भी पीछे नहीं है। पार्टी ने इसे “वोट बैंक की राजनीति” करार देते हुए विपक्ष को कठघरे में खड़ा किया है।
लेकिन आलोचक कहते हैं कि इन दलों का अतीत उनके आज के दावों से मेल नहीं खाता। कांग्रेस पर आरोप है कि आज़ादी के बाद 1951 की जनगणना से आदिवासियों के लिए अलग कॉलम हटा दिया गया, जबकि 1941 तक यह कॉलम मौजूद था। वहीं झामुमो भी तब चुप्पी साधे रहा जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी। अब भाजपा की सरकार आने पर यह मुद्दा गर्माया गया है। भाजपा की विचारधारा भी सरना धर्म को एक स्वतंत्र धर्म मानने की जगह उसे हिंदू धर्म का हिस्सा मानती रही है।
पेसा पर नई चालें
पेसा कानून, जो आदिवासी क्षेत्रों में परंपरागत स्वशासन को मान्यता देने वाला महत्वपूर्ण कानून है, अब भाजपा के लिए आदिवासी समुदाय में अपनी पैठ बनाने का माध्यम बन गया है। पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास और वरिष्ठ नेता बाबूलाल मरांडी ने मौजूदा हेमंत सोरेन सरकार पर पेसा नियमावली लागू न करने का आरोप लगाया है।
भाजपा का कहना है कि सरकार जानबूझकर नियमावली को लटका रही है ताकि ग्रामीण इलाकों में आदिवासी समुदाय का सशक्तिकरण न हो सके। वहीं विपक्षी खेमा इसे राजनीतिक स्टंट बता रहा है, और भाजपा की नीयत पर सवाल उठा रहा है।
जातीय जनगणना और सुरक्षित सीटों का गणित
इस बार जनगणना में आदिवासियों की घटती संख्या की आशंका जताई जा रही है, जिससे विधानसभा और लोकसभा की सुरक्षित सीटों की संख्या में बदलाव संभावित है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि झामुमो इस मुद्दे को दबाने के लिए सरना धर्म कोड को हवा दे रहा है, ताकि जनसंख्या में गिरावट से उपजे असंतोष को रोका जा सके।
वहीं भाजपा ने यह मुद्दा उठाकर यह संकेत दिया है कि वह आने वाले समय में आरक्षण, सीटों के पुनः निर्धारण और राजनीतिक समीकरणों को लेकर आक्रामक रणनीति अपनाएगी।
झारखंड की राजनीति में सरना धर्म कोड, पेसा कानून और जातीय जनगणना आज न केवल आदिवासी अस्मिता बल्कि दलों की सियासी ज़मीन का सवाल बन चुके हैं। लेकिन इन मुद्दों के बीच यह सवाल भी बार-बार उठता है कि क्या राजनीतिक दल वाकई आदिवासी हितों के प्रति गंभीर हैं, या ये केवल सियासी मोहरे हैं?
वक्त बताएगा कि झारखंड की राजनीति में वादों की जीत होगी या आदिवासियों के वास्तविक अधिकारों की।