प्रख्यात चिकित्सक डॉ. प्रेमदास के निधन पर बेटों-बेटियों का न आना बना चर्चा का विषय

चार दशकों तक चिकित्सा के क्षेत्र में अपनी अमूल्य सेवाएँ देने वाले प्रख्यात चिकित्सक डॉ. प्रेमदास के निधन की खबर जहां चिकित्सा जगत में शोक का विषय बनी, वहीं उनके अंतिम संस्कार में बेटों और बेटियों के शामिल न होने की बात इंटरनेट मीडिया पर चर्चा का विषय बन गई। 77 वर्षीय डॉक्टर प्रेमदास का पार्थिव शरीर तीन दिनों तक मोर्चरी में रखा रहा, ताकि विदेश में रहने वाले बेटे और देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाली बेटियां अंतिम संस्कार में शामिल हो सकें। लेकिन कोई संतान उनके अंतिम दर्शन के लिए नहीं आई। अंततः उनकी पत्नी ने पथराई आंखों से मानव सेवा संस्थान के नीरज कुमार की मदद से अपने पति का अंतिम संस्कार किया।

तीन दिनों तक मोर्चरी में पड़ा रहा शव

डॉ. प्रेमदास का शव तीन दिनों तक मोर्चरी में रखा रहा, लेकिन कोई संतान अंतिम संस्कार के लिए नहीं पहुंची। इस घटना को प्रमुख समाचार पत्रों ने प्रकाशित किया, जिसके बाद सोशल मीडिया पर यह खबर तेजी से वायरल हो गई। लोग इस घटना को पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों में गिरावट का संकेत मान रहे हैं।

सोशल मीडिया पर मिली तीखी प्रतिक्रिया

घटना के सामने आने के बाद लोगों ने इंटरनेट मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं। एक सोशल मीडिया उपयोगकर्ता डॉ. प्रह्लाद ने लिखा कि पहले माता-पिता अपने बच्चों को संस्कार सिखाते थे, लेकिन अब उन्हें सिर्फ डॉक्टर और इंजीनियर बनाने की होड़ मची हुई है। वहीं, अर्जुन सोनी ने टिप्पणी की कि अधिकतर माता-पिता बच्चों के दिल में रहते हैं, लेकिन जब संस्कार की कमी होती है तो वे किसी के काम नहीं आते। विजय यादव ने पोस्ट में लिखा कि डॉ. प्रेमदास ने चिकित्सा के क्षेत्र में नाम और शोहरत कमाई, लेकिन उनकी अंतिम यात्रा में उनका ही परिवार शामिल नहीं हुआ।

बदलते पारिवारिक मूल्य और बुजुर्गों की उपेक्षा

एक पिता अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए जीवनभर संघर्ष करता है, लेकिन जब वही संतान उनकी अंतिम यात्रा में भी शामिल नहीं होती तो यह समाज के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बन जाती है। इस घटना ने बुजुर्गों की उपेक्षा और बदलते पारिवारिक मूल्यों पर एक नई बहस छेड़ दी है। इंटरनेट मीडिया पर लोग यह कह रहे हैं कि यदि माता-पिता के प्रति सम्मान और सेवा की भावना बच्चों में होगी तो ऐसी घटनाओं पर रोक लगेगी। लोग यह भी कह रहे हैं कि यदि वरिष्ठ नागरिकों को अपने ही घर में प्यार, सम्मान और सेवा मिले तो उन्हें वृद्धाश्रम का सहारा नहीं लेना पड़ेगा। डॉ. प्रेमदास की यह दुखद घटना समाज के लिए एक बड़ा संदेश है कि पारिवारिक रिश्तों में संवेदनहीनता और आत्मकेंद्रित सोच किस कदर हावी होती जा रही है।

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