नेताजी का चुनावी जुगाड़: बेटे, बेटियों और पत्नी के लिए टिकट की तलाश….

विधानसभा चुनाव की तैयारियों के साथ नेताजी जहां अपनी दावेदारी मजबूत करने में लगे हैं, वहीं कई नेताओं ने अपने परिवार के सदस्यों के लिए टिकट पाने की कवायद शुरू कर दी है. इनमें से कुछ नेता अपनी उम्र की वजह से खुद चुनावी मैदान में नहीं उतरना चाहते, तो कुछ अपने बेटे-बेटी या पत्नी को राजनीति की बागडोर सौंपने की तैयारी में हैं. यदि ये नेता अपने प्रयासों में सफल होते हैं, तो इस बार के चुनाव में लगभग एक दर्जन सीटों पर नए चेहरे देखने को मिलेंगे. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन भी इसी दिशा में अग्रसर हैं. उन्होंने अपने बड़े बेटे बाबूलाल सोरेन को विधानसभा चुनाव के लिए तैयार किया है और उन्हें चुनावी मैदान में उतारने की कोशिश कर रहे हैं. चंपाई सोरेन की तरह, कई अन्य नेता भी अपनी राजनीतिक विरासत को परिवार में ही सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहे हैं. मंत्री सत्यानंद भोक्ता की बात करें, तो वह अपनी बहू रेशमी को चतरा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ाने की योजना बना रहे हैं. रेशमी पहले ही चतरा में संभावित प्रत्याशी के रूप में विभिन्न कार्यक्रमों में भाग ले रही हैं और अपनी पहचान बना रही हैं. चतरा सीट एससी (अनुसूचित जाति) के लिए आरक्षित है, जबकि भोक्ता की जाति अब एसटी (अनुसूचित जनजाति) की सूची में शामिल हो गई है, जिस वजह से वह खुद इस सीट से चुनाव नहीं लड़ सकते. झारखंड विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी भी अपने बेटे दिलीप सिंह नामधारी को विधायक बनाने के लिए लगातार प्रयासरत हैं. दिलीप ने पहले भी निर्दलीय चुनाव लड़ा था, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. इसी तरह, जदयू के प्रदेश अध्यक्ष खीरू महतो भी अपने बेटे दुष्यंत पटेल को मांडू से चुनाव लड़ाने की कोशिश में जुटे हैं. इन नेताओं की तरह रामेश्वर उरांव (पुत्र रोहित उरांव), सीता सोरेन (पुत्री जयश्री सोरेन), स्टीफन मरांडी (पुत्री उपासना मरांडी), रामचंद्र चंद्रवंशी (पुत्र ईश्वर सागर चंद्रवंशी), उमाशंकर अकेला (पुत्र रविशंकर अकेला), कमलेश सिंह (पुत्र सूर्या सिंह) जैसे नेता भी अपने स्वजनों के लिए टिकट की मांग कर रहे हैं.

स्वजनों के लिए लाबिंग जारी

राज्य में कई उदाहरण हैं, जब किसी नेता ने सांसद बनने के बाद अपनी विधानसभा सीट अपने परिवार के सदस्य के लिए छोड़ दी. उदाहरण के तौर पर, आजसू के नेता चंद्रप्रकाश चौधरी ने 2019 में गिरिडीह लोकसभा सीट से चुनाव जीता था, जिसके बाद उन्होंने अपनी रामगढ़ विधानसभा सीट छोड़ दी और अपनी पत्नी सुनीता चौधरी को वहां से चुनाव लड़ाया। हालांकि, उन्हें शुरू में हार का सामना करना पड़ा, लेकिन बाद में हुए उपचुनाव में सुनीता चौधरी विजयी रहीं. इस बार भी सुनीता चौधरी का चुनाव लड़ना तय है. इसी तरह, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने 2019 में दुमका और बरहेट दोनों सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन उन्होंने दुमका सीट खाली कर दी और अपने भाई बसंत सोरेन को वहां से उपचुनाव लड़वाया, जिसमें बसंत को जीत मिली. इस बार भी चर्चा है कि लोहरदगा से लोकसभा चुनाव जीतने वाले सुखदेव भगत अपनी पत्नी या बेटे को विधानसभा चुनाव लड़ाने के लिए टिकट दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. धनबाद से सांसद बने ढुलू महतो अपनी बाघमारा विधानसभा सीट से चुनाव नहीं लड़ेंगे, बल्कि अपनी पत्नी को टिकट दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. ढुलू महतो का इस बार भी अपनी पत्नी के लिए टिकट पक्का करने की कवायद जारी है. झारखंड में कई ऐसे नेता हैं जो खुद चुनावी मैदान से पीछे हटकर अपने परिवार के सदस्यों को राजनीति में आगे बढ़ाने की रणनीति बना रहे हैं. इन नेताओं की योजना है कि वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके अपने परिवार के सदस्यों को चुनावी टिकट दिला सकें और उनके माध्यम से अपनी राजनीतिक विरासत को बनाए रखें. इन चुनावों में नेताओं की यह रणनीति न केवल उनके परिवारों की राजनीतिक उपस्थिति को मजबूत करती है, बल्कि उनके दलों को भी एक मजबूत राजनीतिक आधार प्रदान करती है. हालांकि, यह देखना दिलचस्प होगा कि इन नेताओं के परिवार के सदस्य चुनावी मैदान में कैसे प्रदर्शन करते हैं और क्या वे अपने पिता, पति या परिवार के अन्य सदस्यों की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने में सफल होते हैं.

राजनीतिक विरासत का संघर्ष

इन सभी घटनाओं से स्पष्ट है कि झारखंड की राजनीति में परिवारवाद का चलन तेजी से बढ़ रहा है. राजनीति में परिवार के सदस्यों को आगे बढ़ाने का यह सिलसिला केवल राज्य के बड़े नेताओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रवृत्ति छोटे नेताओं में भी देखने को मिल रही है. राज्य के कई नेता अब अपनी उम्र, स्वास्थ्य और अन्य व्यक्तिगत कारणों से खुद चुनाव लड़ने के बजाय अपने परिवार के सदस्यों को चुनावी मैदान में उतारने की कोशिश कर रहे हैं.

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