झारखंड में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बेहाल है। महालेखाकार की ओर से विधानसभा में पेश किए गए रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई कि झारखंड के सदर अस्पतालों के ओपीडी में आनेवाले मरीजों की संख्या में 57 प्रतिशत की वृद्धि हो गई। दूसरी तरफ, प्रत्येक ओपीडी महज एक डाक्टर की ही उपलब्धता रही। ओपीडी पर मरीजों का बोझ बढ़ता गया, जिसके कारण डाक्टर मरीजों को पर्याप्त परामर्श नहीं दे सके। जनरल मेडिसिन के ओपीडी में 79 से 325 मरीजों, गायनेकोलाजी में 30 से 149 तथा पीडियाट्रिक ओपीडी में 20 से 118 मरीजों को प्रत्येक दिन एक डाक्टर द्वारा परामर्श दिया गया। इस वजह से मरीजों को मिलनेवाले पांच मिनट से कम समय मिल सका।
रिपोर्ट के अनुसार, अगस्त 2014 में झारखंड के सभी जिलों के सदर अस्पतालों में दस-दस बेड की बर्न यूनिट प्रत्येक 1.35 करोड़ की लागत से स्वीकृत हुई थी। इनमें से चार की योजना बाद में रद कर दी गई। 20 जिलों में 12.40 करोड़ रुपये खर्च कर यूनिट की स्थापना तो की गई, लेकिन उपकरण नहीं खरीदे जाने के कारण सात साल में भी ये चालू नहीं हो सकीं।
रिपोर्ट में गिनाई गईं ये कमियां भी..
- डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान छह सदर अस्पतालों में महज पूर्वी सिंहभूम में तैयार किया गया। रांची, देवघर हजारीबाग, पलामू व रामगढ़ में यह तैयार नहीं था।
- इन छह सदर अस्पतालों में मरीजों को उपलब्ध कराए जा रहे डायट की गुणवत्ता जांच की कोई व्यवस्था नहीं थी।
- राज्य के 23 सदर अस्पतालों में से महज नौ में जुलाई 2016 स से मई 2017 के बीच आइसीयू थी। अंकेक्षण में शामिल सभी छह जिलों में उपकरण और दवा की कमी थी।
- हजारीबाग को छोड़कर किसी भी जिला अस्पताल में घायलों के इलाज के लिए ट्रामा वार्ड की व्यवस्था नहीं थी। मरीजों को दूसरे बड़े अस्पतालों में रेफर किया जाता था।
- छह सदर अस्पतालों में दवा खरीद की केंद्रीकृत व्यवस्था नहीं होने तथा स्थानीय आपूर्तिकर्ता से खरीदने से दवा की गुणवत्ता की जांच नहीं हुई।
- सदर अस्पतालों में संक्रमण रोकने को लेकर कारगर उपाय नहीं किए जा रहे थे। न ही हाउस कीपिंग को लेकर कोई एसओपी लागू किया जा रहा था।