नईदिल्ली/रांची- लोकसभा में बुधवार को एक बार फिर भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी को लेकर गर्मागर्म बहस देखने को मिली। भाषाई अस्मिता के इस मुद्दे पर गोड्डा से सांसद निशिकांत दुबे ने सदन में तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि अंग्रेज़ी उनकी मजबूरी नहीं है और न ही उनकी पहचान। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि उन्हें अपनी मातृभाषा हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं पर गर्व है।
सदन में उठा भाषा विवाद
मामला उस वक्त तूल पकड़ गया जब सांसद निशिकांत दुबे “ऑपरेशन सिंदूर” पर बोल रहे थे। इसी दौरान कुछ सदस्यों ने उन्हें अंग्रेज़ी में बोलने की सलाह दी। इस पर नाराज़ होकर दुबे ने साफ शब्दों में कहा,
“ये प्रॉब्लम लोकसभा का है, मेरा नहीं। आपके कहने से मैं अंग्रेज़ी नहीं बोलूंगा। अंग्रेज़ी एक विदेशी भाषा है।”
दुबे ने कहा कि अगर उन्हें तमिल या बंगाली बोलने को कहा जाता, तो उन्हें खुशी होती क्योंकि ये भाषाएं भारत की मिट्टी से जुड़ी हैं। लेकिन अंग्रेज़ी बोलने की मांग उस मानसिकता को दर्शाती है, जो आज भी गुलामी की जड़ों से जुड़ी हुई है।
“भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, अस्मिता का प्रतीक है”
सांसद ने कहा कि भाषा केवल अभिव्यक्ति का साधन नहीं होती, बल्कि यह व्यक्ति की पहचान और संस्कृति की आत्मा होती है।
“मेरी ज़ुबान देश की मिट्टी से बनी है और मैं उसी में बोलना पसंद करता हूं,” उन्होंने गर्जना के साथ कहा।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि भारत की विविध भाषाएं देश की सबसे बड़ी ताकत हैं। “मैं हिंदी पर गर्व करता हूं, तमिल पर गर्व करता हूं, बंगाली, मराठी और हर भारतीय भाषा पर गर्व करता हूं। अंग्रेज़ी मेरी मजबूरी नहीं है।”
एक्स पर शेयर किया वीडियो
सांसद निशिकांत दुबे ने सदन में दिए गए इस भाषण का वीडियो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ (पूर्व में ट्विटर) पर भी साझा किया। उन्होंने लिखा:
“उन्होंने कहा अंग्रेज़ी में बोलिए, मैंने कहा – नहीं, मैं हिंदी में बोलूंगा। मुझे हिंदी पर गर्व है। मुझे तमिल पर गर्व है। मुझे बंगाली, मराठी, हर भारतीय भाषा पर गर्व है। अंग्रेज़ी मेरी मजबूरी नहीं और न ही मेरी पहचान है। मेरी ज़ुबान मेरे देश की मिट्टी से बनी है और मैं उसी में बोलना पसंद करता हूं।”
राजनीतिक प्रतिक्रिया और बहस की लहर
दुबे के बयान के बाद राजनीतिक हलकों में भी प्रतिक्रिया की बाढ़ आ गई।
भाजपा नेताओं ने उनके रुख को “भारतीय भाषाओं की आत्मा के प्रति सम्मान” बताया, वहीं कुछ विपक्षी सांसदों ने इसे “भावनात्मक लेकिन अव्यावहारिक दृष्टिकोण” कहा।
भाषा को लेकर देश में समय-समय पर बहस होती रही है, लेकिन यह विषय आज भी उतना ही संवेदनशील है, जितना स्वतंत्रता के पहले था। आज भी कई सरकारी संस्थानों, न्यायालयों और तकनीकी संस्थाओं में अंग्रेज़ी का वर्चस्व देखने को मिलता है।
क्या वक्त आ गया है भारतीय भाषाओं के पुनर्जागरण का?
निशिकांत दुबे का यह बयान सिर्फ संसद के पटल पर दिया गया एक भाषण नहीं, बल्कि यह देशभर में भाषा को लेकर छिड़ी बहस को एक नई दिशा दे सकता है। जब एक जनप्रतिनिधि यह कहता है कि उसकी पहचान उसकी मातृभाषा है, तो यह संदेश उन करोड़ों भारतीयों के लिए प्रेरणा बन सकता है जो अपने ही देश में भाषा को लेकर हिचकते हैं।
अब सवाल यह है कि क्या भारत के नीति-निर्माताओं को भी भाषाई विविधता के साथ-साथ भाषाई समानता की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए? क्या वक्त आ गया है कि अंग्रेज़ी के बजाय भारत की भाषाएं सत्ता और व्यवस्था की ज़ुबान बनें?